चूरू में भिति चित्रों का संसार
चूरू में भिति चित्रों का संसार
ईष्वर ने मनुष्य की प्रकृति में एक प्रवृति दी है, जिसका लाक्षणिक गुण है स्वयं और परिसर को रंगते हुए दूसरों से अलग दिखना एवं किसी सुलभ स्थान पर अपनी पहचान के चिन्ह बनाना ऐसा करना उसे अपने अस्तित्व और पहचान से जुड़ता प्रतीत हुआ। परिणाम यह रहा कि गुफाओं की दीवारों को रंगे जाने के प्रमाण मिलने लगे। अपने मूँह में रंग डाल कर दीवार पर हाथ रखते हुए रंग की फुहार का हाथ पर छिड़कने से हाथ के पिछे छुपी सतह रंगविहीन होकर हाथ का चित्र बन जाता था।
चूरू जिले की सुजानगढ तहसील मुख्यालय से करीब 10 किमी दूर गोपालपुरा ग्राम है, इस ग्राम के पास ही गोपालपुर पहाड़ी है इस पहाड़ी पर एक मंदिर है और पहाड़ी के उपर से देखने पर दक्षिण पष्चिमी दिषा में छोटी छोटी द्रोणिकायें हैं। बताया जाता है कि इन द्रोणिकाओं (छोटी छोटी गुफाओं) में से एक द्रोणिका की दीवार पर पाषाणकालिन चित्र था जिसे किसी सिरफिरे द्वारा नष्ट कर दिया गया।
घन्टेल में एक काफी पुरानी छतरी है, छतरी को मौके पर जाकर देखने एवं जानकारी लेने पर ग्रामवासियों द्वारा यह बताया गया कि यह छतरी मोयल राजपूत पर बनाई गई है, छतरी दो गुम्बजों से सटी होकर दूर से एक छतरी का आभास देती है परन्तु यह छतरी वस्तुतः दो छतरियों से मिलकर बनी है। छतरी का देखने पर इसके पुरानी होने का आभास गुम्बजों के अन्दर के भिति चित्र दे रहे हैं। चौहानकाल के भिति चित्रों को चूरू जिलें में मेरे द्वारा इसके अतिरिक्त स्थानों पर नहीं देखा गया है, जिले में इससे पुराने भिति चित्रों को मैनें नहीं देखा है। मोयल राजपूतों की छतरी से यह जानेकारी मिलती है इस ग्राम में चौहानवंषियों का शासन था, चौहानों के मुख्य स्तम्भ पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद चौहानवंषियों इस क्षेत्र में दबदबा नहीं रहा। चौहानों के पतन से लेकर राठौड़ों के आगमन तक यह क्षेत्र किसी सुदृढ़ क्षेत्रिय शासकीय व्यवस्था से संचालित नहीं हो सका था।
ईष्वर ने मनुष्य की प्रकृति में एक प्रवृति दी है, जिसका लाक्षणिक गुण है स्वयं और परिसर को रंगते हुए दूसरों से अलग दिखना एवं किसी सुलभ स्थान पर अपनी पहचान के चिन्ह बनाना ऐसा करना उसे अपने अस्तित्व और पहचान से जुड़ता प्रतीत हुआ। परिणाम यह रहा कि गुफाओं की दीवारों को रंगे जाने के प्रमाण मिलने लगे। अपने मूँह में रंग डाल कर दीवार पर हाथ रखते हुए रंग की फुहार का हाथ पर छिड़कने से हाथ के पिछे छुपी सतह रंगविहीन होकर हाथ का चित्र बन जाता था।
चूरू जिले की सुजानगढ तहसील मुख्यालय से करीब 10 किमी दूर गोपालपुरा ग्राम है, इस ग्राम के पास ही गोपालपुर पहाड़ी है इस पहाड़ी पर एक मंदिर है और पहाड़ी के उपर से देखने पर दक्षिण पष्चिमी दिषा में छोटी छोटी द्रोणिकायें हैं। बताया जाता है कि इन द्रोणिकाओं (छोटी छोटी गुफाओं) में से एक द्रोणिका की दीवार पर पाषाणकालिन चित्र था जिसे किसी सिरफिरे द्वारा नष्ट कर दिया गया।
घन्टेल में एक काफी पुरानी छतरी है, छतरी को मौके पर जाकर देखने एवं जानकारी लेने पर ग्रामवासियों द्वारा यह बताया गया कि यह छतरी मोयल राजपूत पर बनाई गई है, छतरी दो गुम्बजों से सटी होकर दूर से एक छतरी का आभास देती है परन्तु यह छतरी वस्तुतः दो छतरियों से मिलकर बनी है। छतरी का देखने पर इसके पुरानी होने का आभास गुम्बजों के अन्दर के भिति चित्र दे रहे हैं। चौहानकाल के भिति चित्रों को चूरू जिलें में मेरे द्वारा इसके अतिरिक्त स्थानों पर नहीं देखा गया है, जिले में इससे पुराने भिति चित्रों को मैनें नहीं देखा है। मोयल राजपूतों की छतरी से यह जानेकारी मिलती है इस ग्राम में चौहानवंषियों का शासन था, चौहानों के मुख्य स्तम्भ पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद चौहानवंषियों इस क्षेत्र में दबदबा नहीं रहा। चौहानों के पतन से लेकर राठौड़ों के आगमन तक यह क्षेत्र किसी सुदृढ़ क्षेत्रिय शासकीय व्यवस्था से संचालित नहीं हो सका था।
चूरू की धरती के क्षेत्र में जन्में एवं वीर पुरूषों के मांडणों की परम्परा विषेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में उनके प्रति आस्था एवं समर्पण को दिखाती है। मांडणों में बायांजी के मांडणें, मावलियों के मांडणें, गणगौर के मांडणें, गुगोजी के मांडणे होते हैं। मांडणों में गाय के गोबर से लेकर नम मिट्टी का प्रयोग किया जाता है। कई स्थानों पर दीवार को गोबर से पोतकर उसके सूख जाने के बाद चूने से पुताई की जाती जिसे सूखने के बाद हिरमच से मांडना मांडा जाता है, सुहाग का मांडणा भी होता है जो सुहाग के प्रतीक के रूप में होता है, उस मांडणें को मेहन्दी एवं रोळी के साथ काजल के टीके से बनाया जाता है।
चित्र मांडने की इस कला को यहाँ के जनजीवन से जुड़ी स्थानीय आध्यात्मिकता एवं महिलाओं ने आगे का मार्ग दिखाया जिसका उदाहरण आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलता है। राजगढ तहसील के ग्राम ददरेवा एवं साण्डन की डूंगरी में मन्नत स्वरूप मेहन्दी के थापे लगाये गये हैं। यह मनुष्य की उस सहजात प्रकृति का ही भाग है जो उसके दिमाग स्वयं को रंगों के माध्यम से सजाने का गुण विकसित होने की प्रारम्भिक सोच थी। मंदिरों में हाथ पर मेहन्दी लगाकर मन्नत मांगी जाती थी, जिन्हे मन्नतो के मांडने कहा जा है, गौगा चौहान की जन्म स्थली व साण्डन मंदिर में मन्नतों के मांडने की तस्वीर है। मंदिरों एवं घरों में भैंरू, चोसट जोगणियों, गणेष जी आदि के मांडने भी मांडे जाते रहे हैं। आळे में तस्वीर बारह महादेव मंदिर से ली गई है तस्वीर में बावन भैंरू चोसट जोगणी का मांडणा है।
रक्षाबंधन के दिन महिलाओं द्वारा घर की प्रत्येक चोगट के दोनों और मांडणें मांडणें की परम्परा है। रक्षाबंधन के शगुन भी माण्डणों का ही एक रूप है जो रक्षाबंधन से एक दिन पूर्व दरवाजे के दोनों और की दीवार पर एक छोटा सा गोल घेरा जो गोबर एवं चूने से पोता जाता है एवं एसे सूखने के बाद हिरमिच से मांण्डणे बनाये जाते हैं। रक्षाबंधन के दिन पंचाग में बताये शुभ मुहुर्त पर चूरमा, खीर आदि घर में बनी मिठाई से इन शगुनों (सूणों) को जिमाया जाता है। बडेरी लुगायां का कहणा है कि रक्षाबंधन के दिन बरसात हो जाती है तो यह समझा जाता है भगवान ने शगुनों (सूणों) को पानी पिलाया है।
गणगौर के अवसर पर एक विषेष माण्डण बनाया जाता है जैसे कुंआरी लड़की गणगौर पूजती है तो बतीस टिकी रोळी, बतीस मेहन्दी तथा बतीस टिकी काजल का माण्डणा तथा विवाहिता गणगौर पूजती है तो सोलह टिकी रोळी, सोलह मेहन्दी तथा सोलह टिकी काजल का माण्डणा बनाया जाता है। अगर विवाहित गणगौर उजमणा कर चूकी हो तो रोळी, काजल एवं मेहन्दी की आठ-आठ टिकियाँ लगाई जाती है, यह स्पष्ट होता है कि माण्डणें की परम्परा को बहुत ही विधिवत रूप से एक पीढि से दूसरी पीढि में बताया जाता था।
चित्र मांडने की इस कला को यहाँ के जनजीवन से जुड़ी स्थानीय आध्यात्मिकता एवं महिलाओं ने आगे का मार्ग दिखाया जिसका उदाहरण आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलता है। राजगढ तहसील के ग्राम ददरेवा एवं साण्डन की डूंगरी में मन्नत स्वरूप मेहन्दी के थापे लगाये गये हैं। यह मनुष्य की उस सहजात प्रकृति का ही भाग है जो उसके दिमाग स्वयं को रंगों के माध्यम से सजाने का गुण विकसित होने की प्रारम्भिक सोच थी। मंदिरों में हाथ पर मेहन्दी लगाकर मन्नत मांगी जाती थी, जिन्हे मन्नतो के मांडने कहा जा है, गौगा चौहान की जन्म स्थली व साण्डन मंदिर में मन्नतों के मांडने की तस्वीर है। मंदिरों एवं घरों में भैंरू, चोसट जोगणियों, गणेष जी आदि के मांडने भी मांडे जाते रहे हैं। आळे में तस्वीर बारह महादेव मंदिर से ली गई है तस्वीर में बावन भैंरू चोसट जोगणी का मांडणा है।
रक्षाबंधन के दिन महिलाओं द्वारा घर की प्रत्येक चोगट के दोनों और मांडणें मांडणें की परम्परा है। रक्षाबंधन के शगुन भी माण्डणों का ही एक रूप है जो रक्षाबंधन से एक दिन पूर्व दरवाजे के दोनों और की दीवार पर एक छोटा सा गोल घेरा जो गोबर एवं चूने से पोता जाता है एवं एसे सूखने के बाद हिरमिच से मांण्डणे बनाये जाते हैं। रक्षाबंधन के दिन पंचाग में बताये शुभ मुहुर्त पर चूरमा, खीर आदि घर में बनी मिठाई से इन शगुनों (सूणों) को जिमाया जाता है। बडेरी लुगायां का कहणा है कि रक्षाबंधन के दिन बरसात हो जाती है तो यह समझा जाता है भगवान ने शगुनों (सूणों) को पानी पिलाया है।
गणगौर के अवसर पर एक विषेष माण्डण बनाया जाता है जैसे कुंआरी लड़की गणगौर पूजती है तो बतीस टिकी रोळी, बतीस मेहन्दी तथा बतीस टिकी काजल का माण्डणा तथा विवाहिता गणगौर पूजती है तो सोलह टिकी रोळी, सोलह मेहन्दी तथा सोलह टिकी काजल का माण्डणा बनाया जाता है। अगर विवाहित गणगौर उजमणा कर चूकी हो तो रोळी, काजल एवं मेहन्दी की आठ-आठ टिकियाँ लगाई जाती है, यह स्पष्ट होता है कि माण्डणें की परम्परा को बहुत ही विधिवत रूप से एक पीढि से दूसरी पीढि में बताया जाता था।
विवाहित स्त्री के लड़का होने पर नामकरण अथवा जलवा (सिर धोवण) के दिन जिस कमरे में प्रसव हुआ है या जच्चा बच्चा कक्ष के दरवाजे के दोनो और दांयी और स्वास्तिक तथा बांयी दिषा में छाबड़ी या सूरज का मांडना गोबर से बनाया जाता है, इन मांडनों को अलंकृत करने के लिए रंगीन कपड़े की कतरन से सजाया जाता था। नामकरण होने के बाद जच्चा के अपने कक्ष में प्रवेष करने से पहले स्वास्तिक एवं छाबड़ी (सूरज) की पूजा करती है।
भिति चित्रों का एक रूप अर्थात ग्रामीण क्षेत्रों में मांडणों की परम्परा आज भी देखने की मिलती है। इन भिति चित्रों को गाय के गोबर में धांधले भाटे की मिट्टी एवं कच्चे जोहड़े की काली मिट्टी के मिश्रण से तैयार कर बनाया जाता है। इस प्रकार के चित्र ग्रामीण क्षेत्रों में पानी पीने हेतु रखे घड़े के पास स्थान जिसे परींडा कहा जाता है, रसोई के अन्दर या बाहर उचित स्थान पर जो साफ सुथरी हो तथा बच्चों का आवागमन कम हो, पूजा स्थल के पास बनाये जाते हैं। कभी कभी घरों के बाहर भी विवाह आदि उत्सवों पर बनाये जाते थे। चूरू परिक्षेत्र अथवा जिले में ग्रामीण क्षेत्रों में मांडणों की परम्परा कम विकसित हो पाई है।
भिति चित्रों का एक रूप अर्थात ग्रामीण क्षेत्रों में मांडणों की परम्परा आज भी देखने की मिलती है। इन भिति चित्रों को गाय के गोबर में धांधले भाटे की मिट्टी एवं कच्चे जोहड़े की काली मिट्टी के मिश्रण से तैयार कर बनाया जाता है। इस प्रकार के चित्र ग्रामीण क्षेत्रों में पानी पीने हेतु रखे घड़े के पास स्थान जिसे परींडा कहा जाता है, रसोई के अन्दर या बाहर उचित स्थान पर जो साफ सुथरी हो तथा बच्चों का आवागमन कम हो, पूजा स्थल के पास बनाये जाते हैं। कभी कभी घरों के बाहर भी विवाह आदि उत्सवों पर बनाये जाते थे। चूरू परिक्षेत्र अथवा जिले में ग्रामीण क्षेत्रों में मांडणों की परम्परा कम विकसित हो पाई है।
भिति चित्रों का आधुनिक रूप
भिति चित्रों के बारे में सबसे पहले यह जान लेना कि भिति चित्र क्या हैं। जहाँ तक मेरा मानना है भिंतों (दीवारों) पर उकेरे गये चित्र ही भिति चित्र है। भिति चित्रों के संसार को उकेरने में सेठ साहुकारों ने जो भूमिका दी है वह किसी ने नहीं दी है। चूरू के कोठारी, सुराणा, दुगड़, पारख, बागला, बांठिया आदि सेठ साहुकारों द्वारा अपनी हवेलियों में भिति चित्रों को उकेरा जाता था। भिति चित्र कहीं न कहीं अपनी वैभवता को प्रदर्षित करने के सरल साधन थे, जिनका सेठ साहुकारों ने भलीभांति प्रयोग किया और अपनी श्रैष्ठता को प्रदर्षित भी किया। सेठ साहुकारों ने अपने यार दोस्तों, व्यावासायिक द्वन्द्वियां साथ जबर को सिद्ध करने के लिए यह प्रणाली विकसित की, समय ने इस कला को सदैव ही यौवनावस्था में देखा है।
हवेलियों से कुछ दिन पूर्व मंदिरों में इस कला ने अपना डेरा डाला जो कम समय में ही हवेलियों के दीवारों से होते हुए सेठों के घर को सजाने में व्यस्त हो गई। वहाँ से जी नहीं भरा तो अपनी एक साथिन को कहा आओ पक्के तालाबों की ओर मूँह करते हैं, सेठ साहुकारों के धन और मन से निर्मित पक्के तालाबों की दीवारों में भी भिति चित्रों को उकेरा जाने लगा और यह कला अपने नये नये घर ढूँढती रही और उन घरों को अपने चित्रों से सजाती रही। जल संग्रहण संरचनाओं का निर्माण जिस तरह किया गया और वास्तु के अनुपम उदाहरण के रूप में वे आज दुनिया के सामने हैं। सेठाणी का जोहड़ तो एक दिन पूछ ही बैठा ‘‘दुनिया घूम आये हो मेरे जैसा कोई मिला क्या, अपने पर ईतराता यह जोहड़ा बोल उठा सच है मेरा जैसा कोई नहीं, मुझे बनाने के लिए तो शताब्दियाँ चाहिये।
पक्के तालाबों के निर्माण का सबसे सटीक उदाहरण चूरू नगर में चूरू पिंजरापोल सोसायटी के सामने पक्का पिथाणा जोहड़ा और चूरू सरदारषहर मार्ग पर स्थित भगवानसागर तालाब जिसे सेठाणी का जोहड़ा नाम से अधिक जाना जाता है पर उकेरा गया और इन जलसंग्रहण संरचनाओं को जलाभाव दूर करने के साथ-साथ अलंकृत कर दिया। कुओं को अलंकृत करने की जगह को भी ढूँढ लिया गया। मरूओं को भिति चित्रों से सजाया जाने लगा।
भवन के रूप में मंदिरों, हवेलियों, धर्मषालाओं के साथ पक्के तालाबों, कुंओं आदि के निर्माण में जो कारीगर काम करते थे उन्हीं में से प्रषिक्षित कारीगरों द्वारा भिति चित्रों को बनाया जाता था। भिति चित्रों के संबंध में जानकारी लेने पर भिति चित्रों के निर्माण से पहले दीवार का निर्माण करवाया जाता था। दीवार में चूने का उपयोग बहुतायत से होकर प्लास्टर में भी चूने का उपयोग किया जाता था। भवन के उन स्थानों पर जो अधिक दर्षनीय हो एवं जिन्हे अंलकृत किये जाने की अधिक आवष्यकता हो जैसे मुख्य द्वार का उपरी मध्य भाग, इस प्रकार के स्थानों पर संदला एवं कोढी को पीसकर एक पेस्ट तेयार किया जाता था जो आजकल की पुट्टी की तरह होता था, परन्तु उसकी चिकनाई एवं गुणवता अधिक होती थी। भिति चित्रों का दो तरीके से निर्माण किया जाता था। जब दीवार के एक भाग को विषेष रंग देना हो में गीले प्लास्टर में रंग मिला दिया जाता था जो भिति चित्र के पार्ष्व में काम आता था। इस पद्धति को आलागीला पद्धति के नाम से पुकारा जाता था। दूसरा जैसा कि प्रारम्भिक चित्रण किया जाता था। सेठ साहुकारों द्वारा बनवाये जा रहे भिति चित्रों का परिणाम रहा कि भिति चित्रों ने इन भवनों को विष्व में अमर कर दिया। रंगों को बनाने में प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग किया जाता था जैसे सिंगरफ, रामरज, हिरोंज, कोयला, हरा भाटा, काला भाटा को पीसकर एवं आवष्यकतानुसार गोंद मिलाकर। हींगलू, पीपल तथा बरगद की लाख से भी रंगों का मिश्रण तैयार किया जाता था।
चूरू में भिति चित्र निर्माण के कुछ सोपानों का देखा जा सकता है जैसे तारानगर तहसील के सात्युं ग्राम के हरदतगर की समाधि पर बनाये गये षिव मंदिर के भिति चित्रों एवं चंगोई में वनमालीदास की छतरियों से चूरू के भिति चित्रों के प्रारम्भिक काल एवं निर्माण प्रक्रिया को जाना जा सकता है।
षिव मंदिर में घोड़े का अर्ध निर्मित चित्र है जो बताता है कि दीवार पर काले रंग से प्रारम्भिक चित्रण किया जाकर एक खाका तैयार किया जाता था। इसी काले रंग से दीवारों पर लेखन कार्य भी किया जाता था। इसी प्रकार दूसरे चित्र में लाल रंग की लाईनों का भी प्रयोग किया गया है। चूरू नगर में भिति चित्रों की खोज के दौरान मेरी नजर एक तस्वीर पर पड़ी जो अ़र्द्ध निर्मित होकर निर्माण प्रक्रिया के एक पहलु को उजागर कर रही है। संदले से बनी सफेद दीवार को किसी धारदार हथियार से उकेरा गया है जो भिति चित्र के चित्रण में काम आता था। प्राथमिक तौर पर चित्र का खाका खींचने में एक पेटर्न का प्रयोग किया गया है। जो अर्द्ध निर्मित सभी चित्रों में नजर आ रहा है जैसे लाईनों को आधार मानकर ग्रिड तैयार कर लेना हालांकि ग्रिड की संभावना नजर आ रही है, यह भी हो सकता है कि अलग अलग कारीगरों के भिति चित्रण के तरीके भी अलग अलग हो अथवा चित्रण के एक से अधिक तरीके हो। तुलनात्मक रूप से इस प्रकार के अर्द्ध निर्मित विरले ही हैं। मैंने इस प्रकार के चित्र कम ही देखे हैं जो
चूरू की शैली - कृष्णरास
जिस प्रकार जयपुर शैली, बीकानेर शैली, अलवर शैली, बून्दी शैली में एकाधिक भिति चित्रण को उस शैली की पहचान मानते हुए उस चित्र को अधिक महत्व देते हुए उसे उस शैली का प्रतीक चित्र भी माना गया है, जैसे भागवत पुराण बीकानेर शैली का चित्र है। दसी प्रकार मैं सात्युं ग्राम के षिव मंदिर में व चंगोई की छतरी में कृष्ण रास के चित्रण को चूरू का प्रतीक चित्र मानते हुए इसे चूरू की भिति चित्रों की शैली में इसे शीर्ष पर रख सकता हूँ, ऐसा मेरा मानना है।
हरदतगर की समाधि का निर्माणकाल समाधि की दीवार पर लिखा है कि ‘‘श्रीरामजी समत 1878 (सन 1821) मिती जेठ सूदी 11 समाध चीणि गुसाईजी पर परभातगर चेजारा‘‘। समाधि में स्थित प्रथम मंजिल पर स्थित षिवालय के गुम्बज पर कृष्णरास का चित्रण किया गया है, कृष्णरास में पीळे और मेरून रंगो का प्रयोग किया गया है जो शेखावाटी के चित्रों के रंगो से मेल खाते हैं।
चंगोई में वनमालीदास की छतरी जो सन 1681 में बनाई गई थी, के भिति चित्रों को चूरू जिले के पुराने भिति चित्रों में मेरे द्वारा माना गया है, इन छतरियों के गुम्बज पर कृष्णरास के साथ साथ सता के प्रतीकों जिनमें ऊँट, घोड़ों एवं हाथियों पर सवारों का भी चित्रण किया गया है। गुम्बज के मध्य में 18 पंखुड़ियों से निर्मित पतियों का एक चक्र है, दूसरी कतार में कृष्णरास का चित्रण है तीसरी जगह पर ऊँट, घोड़ों एवं हाथियों पर सवारों का चित्रण है एवं चौथी कतार में फूल पतियों का चित्रण है। पीळे रंग के साथ साथ मेरून रंग की बहुलता नजर आ रही है।
गांगियासर में स्थित षिव मंदिर के भिति चित्र हमें भिति चित्रों के उस काल की शुरूआत में ले जाते हैं जब भिति चित्रों की कला यौवनावस्था को प्राप्त हो रही थी। इन चित्रों को निर्माण में कुषलता का प्रयोग करते हुए कारीगर द्वारा रास के साथ-साथ हाथी घोड़ों के साथ साथ सेना भी दिखाई गई है। ढोला मारू के प्रसिद्ध चित्रों में सबसे आकर्षक चित्र गांगियासर के षिव मंदिर में है। रंगो का प्रयोग जिस तरह से किया गया है ऐसा मेरी नजर मे उसके समकालिन दूसरा चित्र नहीं आया।
आरम्भिक काल के चूरू में भिति चित्र घन्टेल ग्राम में मोयल राजपूत की छतरी के से आगे कालान्तर में वनमालीदास की छतरियों, तारानगर तहसील के सात्युं ग्राम में हरदतगर की छतरियों के भिति चित्रों की बनावट एवं रंगों की साम्यता गांगियासर के षिव मंदिर से मिलती है। कहने का अभिप्राय यही है कि चूरू के भिति चित्र शेखावाटी के भिति चित्रण के अधिक निकट है।
इन हवेलियों, छतरियों, जल संग्रहण संचनाओं, मंदिरों आदि में स्थान बना चुकी यह कला परिष्कृत रूप में सामने आने वाली है। आष्चर्य होता है कि चूरू नगर के मुक्तिधामों में भी भिति चित्र उकेरे गये हैं। नगर के एक मुक्तिधाम में प्रवेष होता है और एक महिला का भिति चित्र मुझे दिखाई देता है जो जीवन के उस पहलु को सहजता से स्वीकार कर रही है कि जहाँ आगे मुक्ति का मार्ग है और मुक्ति धाम एक पड़ाव जिसे तय करते हुए आगे का रास्ता आपको तय करना है।
भिति चित्रों के बारे में सबसे पहले यह जान लेना कि भिति चित्र क्या हैं। जहाँ तक मेरा मानना है भिंतों (दीवारों) पर उकेरे गये चित्र ही भिति चित्र है। भिति चित्रों के संसार को उकेरने में सेठ साहुकारों ने जो भूमिका दी है वह किसी ने नहीं दी है। चूरू के कोठारी, सुराणा, दुगड़, पारख, बागला, बांठिया आदि सेठ साहुकारों द्वारा अपनी हवेलियों में भिति चित्रों को उकेरा जाता था। भिति चित्र कहीं न कहीं अपनी वैभवता को प्रदर्षित करने के सरल साधन थे, जिनका सेठ साहुकारों ने भलीभांति प्रयोग किया और अपनी श्रैष्ठता को प्रदर्षित भी किया। सेठ साहुकारों ने अपने यार दोस्तों, व्यावासायिक द्वन्द्वियां साथ जबर को सिद्ध करने के लिए यह प्रणाली विकसित की, समय ने इस कला को सदैव ही यौवनावस्था में देखा है।
हवेलियों से कुछ दिन पूर्व मंदिरों में इस कला ने अपना डेरा डाला जो कम समय में ही हवेलियों के दीवारों से होते हुए सेठों के घर को सजाने में व्यस्त हो गई। वहाँ से जी नहीं भरा तो अपनी एक साथिन को कहा आओ पक्के तालाबों की ओर मूँह करते हैं, सेठ साहुकारों के धन और मन से निर्मित पक्के तालाबों की दीवारों में भी भिति चित्रों को उकेरा जाने लगा और यह कला अपने नये नये घर ढूँढती रही और उन घरों को अपने चित्रों से सजाती रही। जल संग्रहण संरचनाओं का निर्माण जिस तरह किया गया और वास्तु के अनुपम उदाहरण के रूप में वे आज दुनिया के सामने हैं। सेठाणी का जोहड़ तो एक दिन पूछ ही बैठा ‘‘दुनिया घूम आये हो मेरे जैसा कोई मिला क्या, अपने पर ईतराता यह जोहड़ा बोल उठा सच है मेरा जैसा कोई नहीं, मुझे बनाने के लिए तो शताब्दियाँ चाहिये।
पक्के तालाबों के निर्माण का सबसे सटीक उदाहरण चूरू नगर में चूरू पिंजरापोल सोसायटी के सामने पक्का पिथाणा जोहड़ा और चूरू सरदारषहर मार्ग पर स्थित भगवानसागर तालाब जिसे सेठाणी का जोहड़ा नाम से अधिक जाना जाता है पर उकेरा गया और इन जलसंग्रहण संरचनाओं को जलाभाव दूर करने के साथ-साथ अलंकृत कर दिया। कुओं को अलंकृत करने की जगह को भी ढूँढ लिया गया। मरूओं को भिति चित्रों से सजाया जाने लगा।
भवन के रूप में मंदिरों, हवेलियों, धर्मषालाओं के साथ पक्के तालाबों, कुंओं आदि के निर्माण में जो कारीगर काम करते थे उन्हीं में से प्रषिक्षित कारीगरों द्वारा भिति चित्रों को बनाया जाता था। भिति चित्रों के संबंध में जानकारी लेने पर भिति चित्रों के निर्माण से पहले दीवार का निर्माण करवाया जाता था। दीवार में चूने का उपयोग बहुतायत से होकर प्लास्टर में भी चूने का उपयोग किया जाता था। भवन के उन स्थानों पर जो अधिक दर्षनीय हो एवं जिन्हे अंलकृत किये जाने की अधिक आवष्यकता हो जैसे मुख्य द्वार का उपरी मध्य भाग, इस प्रकार के स्थानों पर संदला एवं कोढी को पीसकर एक पेस्ट तेयार किया जाता था जो आजकल की पुट्टी की तरह होता था, परन्तु उसकी चिकनाई एवं गुणवता अधिक होती थी। भिति चित्रों का दो तरीके से निर्माण किया जाता था। जब दीवार के एक भाग को विषेष रंग देना हो में गीले प्लास्टर में रंग मिला दिया जाता था जो भिति चित्र के पार्ष्व में काम आता था। इस पद्धति को आलागीला पद्धति के नाम से पुकारा जाता था। दूसरा जैसा कि प्रारम्भिक चित्रण किया जाता था। सेठ साहुकारों द्वारा बनवाये जा रहे भिति चित्रों का परिणाम रहा कि भिति चित्रों ने इन भवनों को विष्व में अमर कर दिया। रंगों को बनाने में प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग किया जाता था जैसे सिंगरफ, रामरज, हिरोंज, कोयला, हरा भाटा, काला भाटा को पीसकर एवं आवष्यकतानुसार गोंद मिलाकर। हींगलू, पीपल तथा बरगद की लाख से भी रंगों का मिश्रण तैयार किया जाता था।
चूरू में भिति चित्र निर्माण के कुछ सोपानों का देखा जा सकता है जैसे तारानगर तहसील के सात्युं ग्राम के हरदतगर की समाधि पर बनाये गये षिव मंदिर के भिति चित्रों एवं चंगोई में वनमालीदास की छतरियों से चूरू के भिति चित्रों के प्रारम्भिक काल एवं निर्माण प्रक्रिया को जाना जा सकता है।
षिव मंदिर में घोड़े का अर्ध निर्मित चित्र है जो बताता है कि दीवार पर काले रंग से प्रारम्भिक चित्रण किया जाकर एक खाका तैयार किया जाता था। इसी काले रंग से दीवारों पर लेखन कार्य भी किया जाता था। इसी प्रकार दूसरे चित्र में लाल रंग की लाईनों का भी प्रयोग किया गया है। चूरू नगर में भिति चित्रों की खोज के दौरान मेरी नजर एक तस्वीर पर पड़ी जो अ़र्द्ध निर्मित होकर निर्माण प्रक्रिया के एक पहलु को उजागर कर रही है। संदले से बनी सफेद दीवार को किसी धारदार हथियार से उकेरा गया है जो भिति चित्र के चित्रण में काम आता था। प्राथमिक तौर पर चित्र का खाका खींचने में एक पेटर्न का प्रयोग किया गया है। जो अर्द्ध निर्मित सभी चित्रों में नजर आ रहा है जैसे लाईनों को आधार मानकर ग्रिड तैयार कर लेना हालांकि ग्रिड की संभावना नजर आ रही है, यह भी हो सकता है कि अलग अलग कारीगरों के भिति चित्रण के तरीके भी अलग अलग हो अथवा चित्रण के एक से अधिक तरीके हो। तुलनात्मक रूप से इस प्रकार के अर्द्ध निर्मित विरले ही हैं। मैंने इस प्रकार के चित्र कम ही देखे हैं जो
चूरू की शैली - कृष्णरास
जिस प्रकार जयपुर शैली, बीकानेर शैली, अलवर शैली, बून्दी शैली में एकाधिक भिति चित्रण को उस शैली की पहचान मानते हुए उस चित्र को अधिक महत्व देते हुए उसे उस शैली का प्रतीक चित्र भी माना गया है, जैसे भागवत पुराण बीकानेर शैली का चित्र है। दसी प्रकार मैं सात्युं ग्राम के षिव मंदिर में व चंगोई की छतरी में कृष्ण रास के चित्रण को चूरू का प्रतीक चित्र मानते हुए इसे चूरू की भिति चित्रों की शैली में इसे शीर्ष पर रख सकता हूँ, ऐसा मेरा मानना है।
हरदतगर की समाधि का निर्माणकाल समाधि की दीवार पर लिखा है कि ‘‘श्रीरामजी समत 1878 (सन 1821) मिती जेठ सूदी 11 समाध चीणि गुसाईजी पर परभातगर चेजारा‘‘। समाधि में स्थित प्रथम मंजिल पर स्थित षिवालय के गुम्बज पर कृष्णरास का चित्रण किया गया है, कृष्णरास में पीळे और मेरून रंगो का प्रयोग किया गया है जो शेखावाटी के चित्रों के रंगो से मेल खाते हैं।
चंगोई में वनमालीदास की छतरी जो सन 1681 में बनाई गई थी, के भिति चित्रों को चूरू जिले के पुराने भिति चित्रों में मेरे द्वारा माना गया है, इन छतरियों के गुम्बज पर कृष्णरास के साथ साथ सता के प्रतीकों जिनमें ऊँट, घोड़ों एवं हाथियों पर सवारों का भी चित्रण किया गया है। गुम्बज के मध्य में 18 पंखुड़ियों से निर्मित पतियों का एक चक्र है, दूसरी कतार में कृष्णरास का चित्रण है तीसरी जगह पर ऊँट, घोड़ों एवं हाथियों पर सवारों का चित्रण है एवं चौथी कतार में फूल पतियों का चित्रण है। पीळे रंग के साथ साथ मेरून रंग की बहुलता नजर आ रही है।
गांगियासर में स्थित षिव मंदिर के भिति चित्र हमें भिति चित्रों के उस काल की शुरूआत में ले जाते हैं जब भिति चित्रों की कला यौवनावस्था को प्राप्त हो रही थी। इन चित्रों को निर्माण में कुषलता का प्रयोग करते हुए कारीगर द्वारा रास के साथ-साथ हाथी घोड़ों के साथ साथ सेना भी दिखाई गई है। ढोला मारू के प्रसिद्ध चित्रों में सबसे आकर्षक चित्र गांगियासर के षिव मंदिर में है। रंगो का प्रयोग जिस तरह से किया गया है ऐसा मेरी नजर मे उसके समकालिन दूसरा चित्र नहीं आया।
आरम्भिक काल के चूरू में भिति चित्र घन्टेल ग्राम में मोयल राजपूत की छतरी के से आगे कालान्तर में वनमालीदास की छतरियों, तारानगर तहसील के सात्युं ग्राम में हरदतगर की छतरियों के भिति चित्रों की बनावट एवं रंगों की साम्यता गांगियासर के षिव मंदिर से मिलती है। कहने का अभिप्राय यही है कि चूरू के भिति चित्र शेखावाटी के भिति चित्रण के अधिक निकट है।
इन हवेलियों, छतरियों, जल संग्रहण संचनाओं, मंदिरों आदि में स्थान बना चुकी यह कला परिष्कृत रूप में सामने आने वाली है। आष्चर्य होता है कि चूरू नगर के मुक्तिधामों में भी भिति चित्र उकेरे गये हैं। नगर के एक मुक्तिधाम में प्रवेष होता है और एक महिला का भिति चित्र मुझे दिखाई देता है जो जीवन के उस पहलु को सहजता से स्वीकार कर रही है कि जहाँ आगे मुक्ति का मार्ग है और मुक्ति धाम एक पड़ाव जिसे तय करते हुए आगे का रास्ता आपको तय करना है।
चूरू के भिति चित्रों पर अन्य शैलियों का प्रभाव
शासकीय व्यवस्था अन्तर्गत चूरू बीकानेर से जुड़ा रहने के बावजूद चूरू के भिति चित्रों पर बीकानेर शैली के चित्रण की अपेक्षा शेखावाटी चित्रण का प्रभाव देखने को मिलता है। रामगढ शेखावाटी, फतेहपुर, बिसाऊ आदि नगरों के सेठ साहुकारों की इन नगरों में आपस में रिष्तेदारी के साथ व्यापार कार्य व कम दूरी होने से रामगढ, बिसाऊ, फतेहपुर, मलसीसर आदि स्थानों का अधिक प्रभाव रहा है, मेरा ऐसा मानना है कि शेखावाटी की भिति चित्र कला बीकानेर की अपेक्षा अधिक परिष्कृत है। जैसा कि परसरामपुरा की छतरी में चित्रांकन, नवलगढ की हवेलियों की भिति चित्रों के वैभव के साथ साथ महणसर में तोलाराम मसखरा की दुकान।
चूरू के जैन मंदिर में की गई कारीगरी तोलाराम मसखरे की दुकान की कारीगरी में कम ही शैली एक जैसी है। गांगियासर के षिव मंदिर में स्थित भिति चित्र हरतदतगर के षिव मंदिर एवं चंगोई की छतरी के चित्रों से साम्यता रखते हैं। रामगढ शेखावाटी की छतरियों का चित्रण दुनिया ने देखा है। रामगढ शेखावाटी की छतरियों में उकेरे गये भिति चित्र वनमालीदास की छतरियों एवं गांगियासर के षिव मंदिर के चित्रों जितने पुराने नहीं है। परन्तु एक बात की साम्यता नजर आ रही है कि गुम्बज के मध्य में चक्र का चित्रण बहुत ही बारीकी से किया गया है। कृष्ण रास का चित्रण रामगढ शेखावाटी में भी किया गया है।
चूरू के भिति चित्रों को हम चार काल खण्डों में विभाजित कर सकते हैं। प्रथम कालखण्ड जिसमें स्थानीय कलाकारों ने मंदिरो, छतरियों में चित्रित किया। इन चित्रों पर किसी बाहरी शैली में गांगियासर के षिव मंदिर में स्थित भिति चित्रों का प्रभाव दिखाई देता है हो सकता है जिस व्यक्ति ने इन चित्रों का निर्माण करवाया हो उस समय उसके द्वारा यह षिव मंदिर देखा गया हो। हरतदतगर की समाधि के उपर बनाये गये षिव मंदिर के गुम्बज पर अंकित भिति चित्र व चंगोई की छतरी इसके उदाहरण है।
दूसरा काल खण्ड जब स्थानीय कलाकारों एवं सेठ साहुकारों द्वारा धीरे धीरे आवागमन के साधन विकसित होने के कारण निकटवर्ती नगरों की यात्रायें जिस निमित की गई उनमें अपने व्यापार को बढाना, पड़ोसी रिष्तेदार से रिष्तेदारी करने से रामगढ, मलसीसर, फतेहपुर, बिसाऊ, मण्डावा, चिड़ावा आदि नगरों में आवक एवं जावक बढी और नये नये क्षेत्रों को देखने का अवसर मिला और चूरू नगर के समृद्ध किया। बताया जाता है कि चूरू के गूदड़ी बाजार में तेजी मंदी का सौदा होता था। शाम के समय आसपास नगरों के सेठ साहुकार अपने रथों, बग्धियों आदि साधनों में आते थे और व्यापार के साथ -साथ कई अन्य सरोकारों का भी आदान प्रदान होता था, जिसमें सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ अपने वैभव को भिति चित्रों के माध्यम से प्रदर्षित करने की कला भी शामिल थी। इस काल में नये चित्रों का निर्माण करवाया। इन चित्रों में रामायण, महाभारत आदि के चरित्रों के चित्रण में राम दरबार, कृष्ण अवतार एवं लीला के चित्रण के साथ-साथ गंगामाई का चित्रण, ढोला मारू, विष्णु अवतार, मां दुर्गा, रामायण एवं महाभारत के चरित्र, राम दरबार, गोवर्धन का धारण, षिव पारवती, कृष्ण लीला, सामान्य जीवन। हवेली के मुख्य द्वार की चोगट के उपर पर भगवान गणेष का स्थान नियत कर दिया गया है। यह समय भिति चित्रण में शुद्ध रूप से आध्यात्मिकता का समय था। यह काल चूरू की भिति चित्र कला का स्वर्णिम काल था।
भिति चित्रों पर सता का प्रभाव
तीसरा कालखण्ड जब भिति चित्रों पर शासकीय प्रभाव नजर आने लगा है। शासकों को चित्रों में उकेरा जाना, युद्ध के दृष्य, ऊँटों पर लड़ाई, हाथी और घोड़ों सवारों का चित्रण, युद्ध के लिए प्रस्थान करते, साफा पहने ऊँट की मूरी पकड़े व्यक्ति। दूसरे काल खण्ड के आध्यात्मिक से ओत प्रोत चित्रों में उन चित्रों को भी शामिल किया जाने लगा जिसमें सता की की संलग्नता दिखाई देती हो। अब बीकानेर शैली का प्रभाव भी नजर आने लगा है। विषेषकर गढों में बीकानेर शैली का प्रधान नीला रंग भी कहीं कहीं अपना रंग जमाने लगा था। बुचावास गढ इसका उदाहरण है, इस गढ का निर्माण पन्नेसिंह द्वारा संवत् 1949 (सन् 1892) में करवाया गया। पूरा गढ ही नीले रंग से भरा पड़ा है। मानो कलाकार को बाल्टी भर नीली रंग दिया गया हो। गढ में नीले रंग के बाद गैरूआ रंग अधिक दिखाई देता है। गढ में आदमकद व्यक्ति के चित्र है जो शासकीय प्रभाव को जाहिर करता है।
हवेलियों ने सता का चित्रण तो आरम्भ कर दिया परन्तु बीकानेर शैली का स्पष्ट प्रभाव नजर नहीं आ सका। चूरू नगर की बहुत सी हवेलियों में आध्यात्मिकता का चित्रण तीसरे काल खण्ड में हावी रहा हालांकि चूरू की हवेलियों के मुख्य दरवाजों एवं हवेलियों में बीकानेर के राजा गंगासिंह जी का भी चित्र दिखाई देने लग गया था। बीकानेर राज दरबार के विभिन्न समकालिन राजाओं के चित्र हवेलियों की दीवारों पर नजर आने लगे परन्तु महाराजा गंगासिंह के चित्र इन हवेलियों में बनाये गये उतने चित्र किसी भी राजा के नहीं बने, इसका एक मुख्य कारण यह भी रहा कि जब सता की बात आती है तो गंगासिंह का राज जन मानस द्वारा स्वीकार्य होकर श्रेष्ठ माना गया है। जन मानस में महाराजा गंगासिंह की छवि न्याय प्रिय राजा की मानी गई है।घोड़े पर सवार व्यक्ति का हाथ में भाले का चित्र इन दिनों अधिक बनाया जाने लगा। हवेलियों में हाथी के चित्र कई रूपों में चित्रित किये गये। हाथी पर सवार राजा अपनी वैभवता को प्रदर्षित करते भिति चित्रों में नजर आने लगे। यह वह समय रहा शेखावाटी शैली के साथ साथ बीकानेरी शैली का प्रभाव रहा।
शासकीय व्यवस्था अन्तर्गत चूरू बीकानेर से जुड़ा रहने के बावजूद चूरू के भिति चित्रों पर बीकानेर शैली के चित्रण की अपेक्षा शेखावाटी चित्रण का प्रभाव देखने को मिलता है। रामगढ शेखावाटी, फतेहपुर, बिसाऊ आदि नगरों के सेठ साहुकारों की इन नगरों में आपस में रिष्तेदारी के साथ व्यापार कार्य व कम दूरी होने से रामगढ, बिसाऊ, फतेहपुर, मलसीसर आदि स्थानों का अधिक प्रभाव रहा है, मेरा ऐसा मानना है कि शेखावाटी की भिति चित्र कला बीकानेर की अपेक्षा अधिक परिष्कृत है। जैसा कि परसरामपुरा की छतरी में चित्रांकन, नवलगढ की हवेलियों की भिति चित्रों के वैभव के साथ साथ महणसर में तोलाराम मसखरा की दुकान।
चूरू के जैन मंदिर में की गई कारीगरी तोलाराम मसखरे की दुकान की कारीगरी में कम ही शैली एक जैसी है। गांगियासर के षिव मंदिर में स्थित भिति चित्र हरतदतगर के षिव मंदिर एवं चंगोई की छतरी के चित्रों से साम्यता रखते हैं। रामगढ शेखावाटी की छतरियों का चित्रण दुनिया ने देखा है। रामगढ शेखावाटी की छतरियों में उकेरे गये भिति चित्र वनमालीदास की छतरियों एवं गांगियासर के षिव मंदिर के चित्रों जितने पुराने नहीं है। परन्तु एक बात की साम्यता नजर आ रही है कि गुम्बज के मध्य में चक्र का चित्रण बहुत ही बारीकी से किया गया है। कृष्ण रास का चित्रण रामगढ शेखावाटी में भी किया गया है।
चूरू के भिति चित्रों को हम चार काल खण्डों में विभाजित कर सकते हैं। प्रथम कालखण्ड जिसमें स्थानीय कलाकारों ने मंदिरो, छतरियों में चित्रित किया। इन चित्रों पर किसी बाहरी शैली में गांगियासर के षिव मंदिर में स्थित भिति चित्रों का प्रभाव दिखाई देता है हो सकता है जिस व्यक्ति ने इन चित्रों का निर्माण करवाया हो उस समय उसके द्वारा यह षिव मंदिर देखा गया हो। हरतदतगर की समाधि के उपर बनाये गये षिव मंदिर के गुम्बज पर अंकित भिति चित्र व चंगोई की छतरी इसके उदाहरण है।
दूसरा काल खण्ड जब स्थानीय कलाकारों एवं सेठ साहुकारों द्वारा धीरे धीरे आवागमन के साधन विकसित होने के कारण निकटवर्ती नगरों की यात्रायें जिस निमित की गई उनमें अपने व्यापार को बढाना, पड़ोसी रिष्तेदार से रिष्तेदारी करने से रामगढ, मलसीसर, फतेहपुर, बिसाऊ, मण्डावा, चिड़ावा आदि नगरों में आवक एवं जावक बढी और नये नये क्षेत्रों को देखने का अवसर मिला और चूरू नगर के समृद्ध किया। बताया जाता है कि चूरू के गूदड़ी बाजार में तेजी मंदी का सौदा होता था। शाम के समय आसपास नगरों के सेठ साहुकार अपने रथों, बग्धियों आदि साधनों में आते थे और व्यापार के साथ -साथ कई अन्य सरोकारों का भी आदान प्रदान होता था, जिसमें सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ अपने वैभव को भिति चित्रों के माध्यम से प्रदर्षित करने की कला भी शामिल थी। इस काल में नये चित्रों का निर्माण करवाया। इन चित्रों में रामायण, महाभारत आदि के चरित्रों के चित्रण में राम दरबार, कृष्ण अवतार एवं लीला के चित्रण के साथ-साथ गंगामाई का चित्रण, ढोला मारू, विष्णु अवतार, मां दुर्गा, रामायण एवं महाभारत के चरित्र, राम दरबार, गोवर्धन का धारण, षिव पारवती, कृष्ण लीला, सामान्य जीवन। हवेली के मुख्य द्वार की चोगट के उपर पर भगवान गणेष का स्थान नियत कर दिया गया है। यह समय भिति चित्रण में शुद्ध रूप से आध्यात्मिकता का समय था। यह काल चूरू की भिति चित्र कला का स्वर्णिम काल था।
भिति चित्रों पर सता का प्रभाव
तीसरा कालखण्ड जब भिति चित्रों पर शासकीय प्रभाव नजर आने लगा है। शासकों को चित्रों में उकेरा जाना, युद्ध के दृष्य, ऊँटों पर लड़ाई, हाथी और घोड़ों सवारों का चित्रण, युद्ध के लिए प्रस्थान करते, साफा पहने ऊँट की मूरी पकड़े व्यक्ति। दूसरे काल खण्ड के आध्यात्मिक से ओत प्रोत चित्रों में उन चित्रों को भी शामिल किया जाने लगा जिसमें सता की की संलग्नता दिखाई देती हो। अब बीकानेर शैली का प्रभाव भी नजर आने लगा है। विषेषकर गढों में बीकानेर शैली का प्रधान नीला रंग भी कहीं कहीं अपना रंग जमाने लगा था। बुचावास गढ इसका उदाहरण है, इस गढ का निर्माण पन्नेसिंह द्वारा संवत् 1949 (सन् 1892) में करवाया गया। पूरा गढ ही नीले रंग से भरा पड़ा है। मानो कलाकार को बाल्टी भर नीली रंग दिया गया हो। गढ में नीले रंग के बाद गैरूआ रंग अधिक दिखाई देता है। गढ में आदमकद व्यक्ति के चित्र है जो शासकीय प्रभाव को जाहिर करता है।
हवेलियों ने सता का चित्रण तो आरम्भ कर दिया परन्तु बीकानेर शैली का स्पष्ट प्रभाव नजर नहीं आ सका। चूरू नगर की बहुत सी हवेलियों में आध्यात्मिकता का चित्रण तीसरे काल खण्ड में हावी रहा हालांकि चूरू की हवेलियों के मुख्य दरवाजों एवं हवेलियों में बीकानेर के राजा गंगासिंह जी का भी चित्र दिखाई देने लग गया था। बीकानेर राज दरबार के विभिन्न समकालिन राजाओं के चित्र हवेलियों की दीवारों पर नजर आने लगे परन्तु महाराजा गंगासिंह के चित्र इन हवेलियों में बनाये गये उतने चित्र किसी भी राजा के नहीं बने, इसका एक मुख्य कारण यह भी रहा कि जब सता की बात आती है तो गंगासिंह का राज जन मानस द्वारा स्वीकार्य होकर श्रेष्ठ माना गया है। जन मानस में महाराजा गंगासिंह की छवि न्याय प्रिय राजा की मानी गई है।घोड़े पर सवार व्यक्ति का हाथ में भाले का चित्र इन दिनों अधिक बनाया जाने लगा। हवेलियों में हाथी के चित्र कई रूपों में चित्रित किये गये। हाथी पर सवार राजा अपनी वैभवता को प्रदर्षित करते भिति चित्रों में नजर आने लगे। यह वह समय रहा शेखावाटी शैली के साथ साथ बीकानेरी शैली का प्रभाव रहा।
चौथा कालखण्ड आजादी से पचास बरस पहले से लेकर आजादी के काल का है। सेठ साहुकारों का दिषावर रूप में देषाटन अन्तर्गत अपने साहसी अभियानों में भारत के नगरों जैसे रंगून, माण्डले, मद्रास, कोलकात, दिल्ली, मुम्बई आदि की यात्रायें की जिनमें उनका व्यावसायिक प्रयोजन निहित था। उन नगरों में अब नये नये आविष्कार सड़कों, रेल की पटरियों व आसमान में दिखाई देने लगे। सेठ साहुकारों द्वारा देखी एवं खरीदी गई मोटर की तस्वीरें भी भिति चित्रों में बनाई जाने लगी एवं चित्रकारों का नये नये आविष्कारों की जानकारी होने पर उनके चित्र बनाये जाना जैसे रेलगाड़ी, हवाई जहाज, मोटर कार आदि।
चक्रों का निर्माण विषेषकर छतरियों के गुम्बजों में बहुत कारीगरी से किया जाता था। सेठाणी के जोहड़े में, पिथाणा जोहड़े में छतरियों के गुम्बजों में चक्रों को देखा जा सकता है। तस्वीरों से पता चलता है कि गुम्बजों में चक्रों के निर्माण में कारीगर ने किस तरह अपनी कुषलता का परिचय देते हुए कल्पना शक्ति का परिचय देते हुए अपनी बुद्धिमता सिद्ध की है। पार्ष्व के साथ समायोजन करते हुए जिस प्रकार रंगो का प्रयोग किया है वह काबिले तारीफ है।
भिति चित्रों की दषा
गढ़ों के रंग महलों में, हवेलियों में के कमरों में, तालाबों और कुंओं पर उकेरे गये भिति चित्र व्यावसायिकता के षिकार होते जा रहे हैं जिन सेठ साहुकारों ने इस धरती पर मन लगाया और भिति चित्रों की वैभवता भरी रंगों की दुनिया को तस्वीरों के माध्यम से सरोबार किया वे स्वयं ही इस धरती से मूँह मोड़ चले। हवेलियाँ सूनी होकर ताले लग गये, पता नहीं किसकी नजर लग गई। जो इस धरती पर बैठे हैं उनको रंगो के संग उकेरे गये चित्रों की समझ और समय ही नहीं रहा, परिणाम यह रहा कि भिति चित्रों पर सफेदी पोती जा रही है। इस कला के प्रति समझ कम होने के कारण लगाव ही नहीं रहा। यह विरासत आज नष्ट हो रही है, जो फिर इस दुनिया में नहीं आने वाली है। बेषकीमती है, जो हम खो रहे हैं। तस्वीर में एक भिति चित्र दिखाया गया है, यह चित्र मैंने चूरू तहसील के एक गढ से लिया है, इस तस्वीर के महत्व को मैं जानता हूँ इसलिए मैने इस पर रंग पुते होने पर भी ले लिया, जो एतिहासिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है, जिस दिन किसी पारखी को पता चलेगा, वह सिर धुन लेगा। इसी प्रकार बुचावास गढ के साथ भिति चित्रों की दुर्दषा मैने अपनी आंखों से देखी है। गढ में एक भिति चित्र में घोड़े पर सवार व्यक्ति का मूँह छेता हुआ है। दीवारों को तोड़ दिये जाने के कारण भिति चित्र भी समाप्त हो गये हैं। हनुतमल जी सुराणा हवेली के दक्षिण में एक हवेली है जो अपने एक दरवाजे के साथ बरसों से खड़ी है।
भिति चित्रों के चितेरे
श्री हनुमानमल कोठारी ने भिति चित्रों के कारीगरों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया कि सलीम व जाफर दो चेजारे थे जो भिति चित्रों के निर्माण में माहिर थे। चूरू की हवेलियों का बहुत सा काम इन चेजारों की देखरेख मे हुआ था। इन दोनों के बारे में हनुमानमल जी कोटारी ने जानकारी दी कि मैंने इनके परिवार के संबंध में जानकारी ली पर सफल नहीं हो पाया। भिति चित्रों को एवं हवेलियों के निर्माण में माहिर चेजारा चूरू नगर के भाईजी चौक के पास रहते हैं उनकी एक बस्ती है। बुचावास गढ के निर्माण में ताजु चेजारा का नाम आज भी अंकित है। इन उस्तागारां ने हवेलियों को अमर कर दिया है। सेठ साहुकारों के मन के चित्रों को अपनी कला के जरियें जिस तरह हवेली के केनवास पर उतारा है, वह अद्वितीय है। मैं आपको एक चित्र प्रस्तुत कर रहा हूँ, इस चित्र इस स्तम्भ में प्रदर्षित करने का एक ही कारण है कि यह जहाँ तक मेरा मानना है। यह चित्र इस बनाने वाले की कल्पना की उड़ान का प्रतिबिम्ब होकर मूर्त रूप में सामने आया है। तस्वीर में दो उड़ने वाले घोड़े दिखाई दे रहे हैं और दो सवार उन घोड़ों पर बैठे है, यह दृष्य प्रथम दृष्टया है। चित्र को ध्यान से देखने पर इस चित्र को बनाने वाले का ज्यामितीय ज्ञान कितना परिष्कृत था।
गढ़ों के रंग महलों में, हवेलियों में के कमरों में, तालाबों और कुंओं पर उकेरे गये भिति चित्र व्यावसायिकता के षिकार होते जा रहे हैं जिन सेठ साहुकारों ने इस धरती पर मन लगाया और भिति चित्रों की वैभवता भरी रंगों की दुनिया को तस्वीरों के माध्यम से सरोबार किया वे स्वयं ही इस धरती से मूँह मोड़ चले। हवेलियाँ सूनी होकर ताले लग गये, पता नहीं किसकी नजर लग गई। जो इस धरती पर बैठे हैं उनको रंगो के संग उकेरे गये चित्रों की समझ और समय ही नहीं रहा, परिणाम यह रहा कि भिति चित्रों पर सफेदी पोती जा रही है। इस कला के प्रति समझ कम होने के कारण लगाव ही नहीं रहा। यह विरासत आज नष्ट हो रही है, जो फिर इस दुनिया में नहीं आने वाली है। बेषकीमती है, जो हम खो रहे हैं। तस्वीर में एक भिति चित्र दिखाया गया है, यह चित्र मैंने चूरू तहसील के एक गढ से लिया है, इस तस्वीर के महत्व को मैं जानता हूँ इसलिए मैने इस पर रंग पुते होने पर भी ले लिया, जो एतिहासिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है, जिस दिन किसी पारखी को पता चलेगा, वह सिर धुन लेगा। इसी प्रकार बुचावास गढ के साथ भिति चित्रों की दुर्दषा मैने अपनी आंखों से देखी है। गढ में एक भिति चित्र में घोड़े पर सवार व्यक्ति का मूँह छेता हुआ है। दीवारों को तोड़ दिये जाने के कारण भिति चित्र भी समाप्त हो गये हैं। हनुतमल जी सुराणा हवेली के दक्षिण में एक हवेली है जो अपने एक दरवाजे के साथ बरसों से खड़ी है।
भिति चित्रों के चितेरे
श्री हनुमानमल कोठारी ने भिति चित्रों के कारीगरों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया कि सलीम व जाफर दो चेजारे थे जो भिति चित्रों के निर्माण में माहिर थे। चूरू की हवेलियों का बहुत सा काम इन चेजारों की देखरेख मे हुआ था। इन दोनों के बारे में हनुमानमल जी कोटारी ने जानकारी दी कि मैंने इनके परिवार के संबंध में जानकारी ली पर सफल नहीं हो पाया। भिति चित्रों को एवं हवेलियों के निर्माण में माहिर चेजारा चूरू नगर के भाईजी चौक के पास रहते हैं उनकी एक बस्ती है। बुचावास गढ के निर्माण में ताजु चेजारा का नाम आज भी अंकित है। इन उस्तागारां ने हवेलियों को अमर कर दिया है। सेठ साहुकारों के मन के चित्रों को अपनी कला के जरियें जिस तरह हवेली के केनवास पर उतारा है, वह अद्वितीय है। मैं आपको एक चित्र प्रस्तुत कर रहा हूँ, इस चित्र इस स्तम्भ में प्रदर्षित करने का एक ही कारण है कि यह जहाँ तक मेरा मानना है। यह चित्र इस बनाने वाले की कल्पना की उड़ान का प्रतिबिम्ब होकर मूर्त रूप में सामने आया है। तस्वीर में दो उड़ने वाले घोड़े दिखाई दे रहे हैं और दो सवार उन घोड़ों पर बैठे है, यह दृष्य प्रथम दृष्टया है। चित्र को ध्यान से देखने पर इस चित्र को बनाने वाले का ज्यामितीय ज्ञान कितना परिष्कृत था।
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