CHURU

मेरी जन्‍म भूमि मेरी नजर में : चूरू जिले की पीळी धरती दुनिया में थार मरूस्थल के नाम से जानी जाती है। जिले के उतर में हनुमानगढ, दक्षिण में सीकर एवं दक्षिण पूर्व में झुंझुनूं, दक्षिण पष्चिमी दिषा में नागौर तथा पष्चिम दिषा में बीकानेर जिले की सीमाएं है, उगते सूरज की रष्मियाँ हरियाणा राज्य की सीमा से होकर आती है। पीळी धरती ने तो अतीत में अपने आसमानी ओढ़णे तले एक अलग ही दुनिया बसा रखी थी, तभी तो मेरे कई मित्रों ने इस अनछूई धरती के नाम से जाना और समझकर श्रद्धास्वरूप नमन करते हुए अपने उद्गार व्यक्त किये। पीत वर्ण यह धरा कहती है, मेरे टिल्लों के पिछवाड़े धाँधले भाटों (पत्थरों) से सजी छोटी-छोटी तलहटियों जैसी अनजान जगहों में कौन रहा करता था, मैं भी आजकल विस्मृत होती जा रही हूँ। बात उन दिनों की है जब रात होने पर सरिसृपों का संसार मुझे गुदगुदाया करता तो मुझे यह अहसास होता कि मेरी गोद में अब जीवन अंगड़ाई लेने लगा है। 
जिले के पष्चिम दिषा के अंतिम छोर के ग्राम धीरासर हाडान से आरम्भ होकर सरदारषहर एवं सरदारषहर से पूर्व मार्ग से होकर उतर के क्षेत्र में स्थित सिद्धमुखी साधुओं एवं चौहानों के निवास ददरेवा जो कालान्तर में दर्दरेवा के नाम से जाना एवं समझा गया, की उतर दिषा के झंखाड़ों में कौन रहता था, कोई तो बताये। खारे पानी की इस धरती में राजास, बलाळ, डालमाण, कानड़वास के निवासियों ने अपने पद्चिन्हों की छाप अवष्य छोड़ी है, परन्तु कोई इन पद्चिन्हों की रेखाओं को पढ़ नहीं पाया। कोयलापाटन शहर इस सŸा के केन्द्र में था। कालीबंगा और पीलीबंगा की समकालिन इस दुनिया में आध्यात्मिकता एवं वैभवता सांस लिया करती थी। यह वह धरती है जहाँ आध्यात्मिकता, वैभवता और सŸा तीनों एक साथ एक ही छत के तले रहा करती थी, लाखाऊ का मठ इसका उदाहरण है। सरदारषहर का रेख खोजेर पट्टा रावतसर नामक गैर आबाद राजस्व ग्राम एक दिन मुझसे कह उठा मित्र जबसे तुम आये हो तो मुझे याद आया है कि मानव के बीस अंगुलियाँ और अंगुष्ठ होते हैं। सरदारषहर तहसील की रंगाईसर की रोही कह उठती है कि फोगळों की इस धरती को निहारने एक बार अवष्य आना नहीं तो तुम्हारी संताने यह नहीं बता सकेगी की फोग कैसे हुआ करते थे।
पूर्णमासी की रात को अपने हिंडोळों में बैठकर पीळे रंग की इस धरती के सौन्दर्य को निहारने अनजान दुनिया से कोई आता है जो नानी के लिए अज्ञात होने के बावजूद ननीहाल आये नातियों को परियों के हिंडोळों की उपमा देकर शान्त स्वभाव से अपनी गोद में सुला लिया करती थी। अब ईष्वर ही जाने नानी के मन को, जो अपनी सन्तानों को सुला देने के बाद क्यों कर आसमान की ओर ताका करती थी।
शास्त्र कहते हैं, पीळा रंग देवताओं को प्रिय है और सर्प षिव को, मेरी धरती माँ एक दिन अपनी सन्तानों के बेहतर भविष्य के स्वप्न देखकर हर्षित हो कह रही थी जानते हो मेरा वर्ण पीळा है जैसा की सोने का होता है, पीळा रंग मुझ पर ओपता भी है और ये षिव के सर्प, सर्प तो मेरी गोद में ही जन्मे, पले, बढ़े हैं। बीणजारे और उसके कुते की कहानी, पशु प्रेम की यह घटना उतर भारत में शीर्ष उत्सवों पर गीतों में ढाल गाई जाती है। चंगोई की छतरियां और सात्युं में हरदतगर की समाधि जो षिव मंदिर के रूप में है, इन स्थानों पर इस धरती के भिति चित्रों ने अपना आरम्भिक काल बिताया है, इनका सम्मोहन देखते ही बनता है। साण्डन में अरावली का गट्टो के रूप में ठहराव के रक्षार्थ माँ ने अपना दरबार लगा रखा है। धरती की सन्तानों में वीर तेजू पीर, गौगाजी चौहान, काँधल जैसे चरित्र है जिनका जिक्र रण और जागरण दोनों में हमेषा ही होता रहेगा। 
लोहसणा में माँ का दरबार इस सभ्यता का साक्षी है। बायला में बायांजी का मंदिर आठ शताब्दियों से हमें देख रहा है। सरदारषहर तहसील के ग्राम हालासर में प्रवेष करते समय विषाल पत्थर कुतुहल का कारण होने के साथ साथ जनमानस की जुबान से यह कर रहे हैं हम तो सत्ययुग के हैं, पत्थरों से जुड़ी लोक कहानी आष्चर्यजनक होने के साथ भावनाओं के उद्गारों को जगाती हुई आंखों को नम कर देती है। यह धरती तो खिराज भक्त की है। लुकषा जोहड़ की आध्यात्मिकता के ठहराव को वही जान पाया है जिसने इस धरती के दर्षन किये। साहवा में संत कब से डेरा डाल विश्राम कर रहे हैं कोई नहीं जान पाया। 
दिल्ली से आया मेरा दोस्त इस धरती के बारे मे कुछ और ही बोल उठा, भीम के इस धरती पर आगमन से लेकर महाभारत विदुर के मन की मेरी धरा जो आज भी गहरी नींद में सोये विदुर को जगा देती है और निद्रा एवं जाग्रत अवस्था की देहलीज पर बैठे विदुर मन ही मन पाण्डवों को कह उठते हैं, अज्ञातवास अरावल के निकट ही बिता लेना, अरावल के उतर में मत जाना और न ही अरावल को अपनी आँखों से औझल होने देना, आगे तो निर्जन प्रदेष है। रूप बदलने का खेल को खेलना इस धरती के टिल्लों ने बड़ी आसानी से सीख लिया है। 
मेरे पूर्वजों के पद चिन्हों एवं बही भाटों की वंषावलियों के इस संसार को मैं जन्म जन्मान्तरों तक नहीं भूलना चाहूँगा और अगले जन्म हेतु विधाता से भीखं मांग लूँगा कि मेरा जन्म इसी धरती पर हो।

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