LAKHAU, CHURU, CHURU
विदुर की सलाह मान पांडवों ने तो इस निर्जन धरा पर अज्ञातवास के दिनों को बिताने में परहेज ही किया। महाभारत के खूनी खेल से अछूती यह धरा उस समय मानव के पैरों की अंगुलियों की अभ्यस्त नहीं हो पाई थी। जब महाभारत में समस्त विश्व अपने आप को क़ष्ण के समक्ष असहाय समझ कर उसके इशारों पर नाच रहा था, उस समय की मनुष्य विहीन इस धरती के बारे में बडे बडेरों से जैव विविधता की जो कहानियां सुनने को मिलती थी उन पर विश्वास ही नहीं होता था। गादडों की डार की डार का पूरी पूरी रात हू हू कर घूमना एक सामान्य बात मानी जाती थी, फया गादडी के बारे में सुनकर तो आज भी मन सिहर उठता है। बोड बिलावों के बारे में दादोजी जिस प्रकार बताते थे कि मन यूं करता है कि काश उस समय हमारा जन्म होता। भेडियों को उस समय मिंडा कहते थे। कहते थे कि मिंडों का खूनी खेल आसपालसर की रोही में तो तीन दिनों तक चला था। कभी कभी कोई राहगीर जब भटक कर इस ओर आता तो खारा पानी पीकर उसी क्षण इसे छोडकर जाना पडता या सतह पर पानी के अभाव के कारण कम ही कोई बीणदगारा अपनी बीणद को इस धरती के रास्ते पर आने का साहस ही कर पाते। बायला की बायांजी जानती थी कि घर छूटने के बाद कुए की नाळ साथ देगी। जहां तक मेरा मानना है कि इस पीळी धरती पर सबसे पहले नाथों, महन्तों एवं अध्यात्म के स्वामियों के चरण पडे और धरती धन्य हो गई। अध्यात्म के इन पुरोधों ने इस धरती की बहुत सी जगहों पर अपने ठीकाने बनाये जिनमे से लाखाउ भी एक था। ग्राम में एक मठ है जो ग्राम के बसने से पूर्व का है इस धरती पर बहुत सी जगहों पर ऐसे ही मठ हैं जो ग्राम के बसने से बहुत पहले के हैं। लाखाउ ग्राम में यह मठ मुगल शैली से प्रभावित होकर बनाया गया है। बताया जाता है कि इस मठ के चारों और चार बुर्ज थे जो मठ के केन्द्र में होने का संकेत देते हैं। इन चारों बुर्जों में से मात्र एक ही बुर्ज बची है। इस प्रकार उस मठ की भव्यता की कल्पना करने पर तत्समय उसकी आध्यत्मिकता और वैभवता के विचित्र संगम की मैं तो कल्पना करने के अतिरिक्त कुछ नहीं सोच पा रहा हूं। अब पता नहीं ईश्वर ने क्यों सोचा अथवा उसके मन में क्या था जो उसने यह कहा कि आध्यात्मिकता और वैभवता अधिक नहीं चले तो ही अच्छा, अपनी दासी नियति के कान में कुछ कहा। अब तो समय बदलेगा, रंग नये चढेगें, इस धरा पर नई चादरें बिछाई जायेगी, पहाडों के पार से हरा चरने वाले घोडों और हाथियों पर सवार होकर आने वाली नई शक्तियों का मार्ग प्रशस्त होने वाला है, धरती का श्रंगार तय है। नियति ने समय का सहारा लिया और बाबा बाल पुरी ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में अपनी इच्छा बताई कि मेरे द्वारा देह त्याग के बाद देह को थान मठुई भेजने का प्रबंध कर दिया जावे, हामी भर दी गई, आत्मा ने देह को छोडा और उस शरीर को देखकर किंचित विचार करने लगी कि हे देह तूं धन्य है जिसके कारण आज मुझे नित्य लोक प्राप्त होगा कि दो चेले आये और देह को थान मठुई के मठ की दिशा में जाने हेतु देह को ले जाने का प्रबंध कर प्रस्थान करने लगे। नियति तो बस इसी क्षण को तैयार बैठी थी जैसा उसके कान में कहा गया उसने वैसा ही किया। धूणे का धुंआ और साधु का हठ योग आज किसी के आडे नहीं आया, आया तो यह विचार की हम तो बाबाजी की देह के साथ प्रस्थान कर रहे हैं पिछे इस अपार सम्पदा में हमारा कोई हिस्सा नहीं होगा, तभी नियति को हंसी आ गई और बाबाजी के रूप को त्याग कर गई दिव्यात्मा भी गुस्से में आ गयी और अपनी यात्रा से एक पल विमुख हो उन दोनों साधुओं को जिन्होंने बाबाजी की देह को वापिस इसी मठ में लाकर छोड दिया, को कहा कि तुमने आध्यात्मिकता को त्याग कर वैभव को महत्व देकर और देह को थान मठुई न भेजकर बहुत बडा पाप किया है। मेरा तुम लोगों को श्राप है कि तुम इसी मठ में इस वैभवता के बोझ तले लड लड कर मरोगे। नियति ने अपना खेल पूरा किया। भगवान के पास जाकर बोली आपके कहे अनुसार मैं आध्यात्मिकता और वैभवता दोनों को अलग-अलग कर आई हूं। ईश्वर ने नियति को आशीर्वाद दिया और कहा कि शिव को वैभवता पसंद ही नहीं थी।
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