SETHANI KA JOHDA

भगवानसागर (सेठाणी का जोहड़ा) -जल संग्रहण के अनुपम उदाहरण ‘‘सेठाणी का जोहडा’’ और उसके वैभव की कहानी- चूरू जिला मुख्यालय से पष्चिमी दिषा में करीब 2 किमी दूर सार्वजनिक उपयोग का जोहड मय पायतन स्थित है जो ‘‘सेठाणी का जोहडा़’’ नाम से पूरे प्रदेष में विख्यात है।
संवतों के इतिहास में दुर्भिक्ष स्वरूप जाने गये संवत् 1856 में जलाभाव के इस प्रतीक का जन्म जल, जीवन और जबर को सिद्ध करने हेतु हुआ। सटीक आयताकार कोणीय रूप का धनी यह जोहड़ा अपने तीन मुखों से मुखातिब होकर मुख्य द्वार दक्षिणाभिमुखी है, शापित सौन्दर्य से युक्त वास्तु के इस अप्रतिम उदाहरण की किसी से तुलना करने हेतु मनुष्य इस जैसा दूसरा रूप आज तक नहीं गढ़ सका।
सेठाणी का यह जोहड़ा दूर से ही सम्मोहित करता है। चारों कोणों पर जहाँ चार भुजाएं आकर मिलती है, पर सात स्तम्भों की छतरियाँ का निर्माण किया गया। इन छतरियों का वैभव उकेरे गये भिति चित्रों से जीवन्तता का आभास दिलाता है। इस जौहड़े को निर्मित करते समय पाळों की सुन्दरता को विस्तारित करने में कलाकार ने अपने सपनों को साकार करते हुए मानो एक जीवित आकार में अपने सपनों के समान्तर ढ़ाल दिया।चैदह स्तम्भों एवं कंगूरों से निर्मित तीन प्रवेष द्वारों से सुसज्जित जल संग्रहण के लिए निर्मित मानव की यह अदभुत संरचना कह उठती है, पूरी दुनिया घूम आये क्या मेरे जैसा कोई मिला ? सच है, मेरे जैसा कोई नहीं।
धांधले पत्थरों के धरातल पर चूने से निर्मित इस भव्य जोहड़े को चाँदनी रातों में अनजानी दुनियाँ के लोग अपने हिन्डोळों में सवार हो निहारने आते हैं। सत्य है,जलीय वास्तु के इस अनुपम सौन्दर्य की किसी से तुलना नहीं की जा सकती, स्वयं पर इतराता यह जोहड़ा कह उठता है एक शताब्दी से अधिक का समय बीत गया, मेरे जैसे को बनाने के लिये तो शताब्दियाँ चाहिये।
एक दिन शाम के समय दुःखी मन से अपनी व्यथा सुनाते हुए मुझसे कह उठा मित्र मेरी ओर ध्यान से देखो, मैं दक्षिणाभिमुखी हूँ, शास्त्रों में लिखा है कि मनुष्य की किस्मत में काँटा और इमारत दक्षिणाभिमुखी हो, तो दोनों कितने भी अनुपम एवं अद्वितीय हो, शीर्ष पर कभी नहीं पहुँच सकते, अब दोष किसको मित्र।याद है जब तुम बचपन के दिनों मेरे पास आये थे और पहली बार जब मेरे दक्षिणाभिमुखी मुख्य द्वार के मध्य मेरी रक्षार्थ भगवान गणेष को देख कर ठिठुर कर रूके थे, तब से हमारी दोस्ती है, अपनी मित्रता को आगे बढाते हुए मैंने अपनी काया पर टेटू की तरह उकेरे गये फ्रान्स की मोनालिसा का चित्र भी तुम्हंे दिखाया था तब तुमने अपनी मनुष्यजनित बुद्धिमानी का परिचय देते हुए मुझसे कहा था क्या यह मेरे शहर की मोनालिसा नहीं हो सकती, मुझे आज भी याद है तब मैंने कहा था, क्यों नहीं, क्यों नहीं।
‘‘भगवानसागर’’, नाम से जन्मा से यह तालाब एवं इसकी शारीरिक संरचंना मुझे कई कोणों से अचम्भित कर देती है। वास्तु के इस अनुमप उदाहरण की तुलना में उस मंदिर से कर सकता हूँ जिसका पूजारी अपनी आजीविका एवं सन्तानों के बेहतर भविष्य की तलाष में दिषावर चला गया हो और पूजित होने के भाव से ग्रसित जल का देवता भी किसी पुजारी की खोज में अन्यत्र वासित हो गया हो, रह गया तो शेष यह खण्डहर।
एक दिन क्षोभित हो मुझसे कहने लगा, तेरे शहरवासियों की अभाव के दिनों की पीड़ा एवं दर्द को साझा करने वाले किसी देवत्व के हाथों मनुष्य की टोक और जीजिविषा सिद्ध करने हेतुक मेरा जन्मा हुआ, पर विडम्बना तो देखो आज मैं स्वयं समय से पहले बुढा हो चला हूँ,, दोस्त तुम ही कहते थे कि पानी के निकट देवताओं का वास होता है और सुना है कि सुहानी यादें अधिक दिनों तक स्मृति पटल पर रहती है, अर्द्ध रात्रि के पष्चात परियाँ मेरे पानी में नहाने आती थी और स्वयं के सौन्दर्य को मेरे कंगूरों के मनकों से तोलने के प्रयासों में कभी मैं हार जाता तो कभी परियाँ, पर हार किसी ने नहीं मानी, परन्तु जिस दिन निष्ठुर मनुष्य ने मुझसे मुँह मोड़ा उसी दिन से मेरे अच्छे दिन नहीं रहे। बूरा मत मानना दोस्त तुम भी तो उसी शहर के वासी जो मुझसे पूर्व दिषा में दो किलोमीटर दूर है, मुझमें जल रूपी जीवन का वास होते हुए भी मुझे निःसहाय छोड़ दिया। समय रहते तुमने मेरी वृद्ध काया का इलाज नहीं करवाया तो मैं नहीं रहूँगा, तब देखना मित्र इस शहर की पहचान का, पष्चिम दिषा से आने वाला राहगिर भारी मन से कह उठेगा देखो देखो इस स्थल पर कभी दुनिया का सबसे सुन्दर चैमुखा तालाब जिसकी बून्द-बून्द से वैभवता टंपकती थी, हुआ करता था जिसे लोग सेठाणी का जोहड़ा कहते थे एवं उसकी ख्याति इसे निर्माण करने वालों के विषाल ह्नदय की तरह दूर-दूर तक थी।

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